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अलीगढ़ के क़रीब क़िला भीकमपुर में पैदा हुई ज़ाहिदा ख़ातून शेरवानिया का ताल्लुक़ एक तालीमयाफ़्ता और रौशन-ख़याल ख़ानदान से था। उनके वालिद नवाब मोहम्मद मुज़म्मिल ख़ान शेरवानी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर रहे। बचपन में वालिदा के इंतक़ाल के बाद उनकी परवरिश वालिद ने मोहब्बत और शफ़क़त से की और उनकी तालीम पर ख़ास तवज्जो दी। उन्हें अरबी और अंग्रेज़ी दोनों की तालीम दी गई।
कमसिनी ही में ज़ाहिदा ने अपने हुनर और सोच से पहचान बना ली। 15-16 साल की उम्र में वह एक तालीमयाफ़्ता शायरा और अदीबा के तौर पर मशहूर हो गईं। उस दौर में औरतों की तालीम आम नहीं थी, लेकिन उन्होंने साबित किया कि औरतें भी इल्म और फ़िक्र के मैदान में बराबर की हिस्सेदार हैं। उनका मज़मुआ-ए-क़लाम “फ़िरदौस-ए-तख़य्युल” उनके इंतक़ाल के बाद 1941 में प्रकाशित हुआ।
ज़ाहिदा ख़ातून आज़ादी की तहरीक की पुरज़ोर हिमायती थीं। उन्होंने औरतों और मर्दों दोनों में सियासी शऊर पैदा किया और ख़्वातीन को अपने हक़ूक़ और सियासी हिस्सेदारी के लिए तैयार किया। वह औरतों को तहरीक-ए-आज़ादी का अहम हिस्सा बनाने की बड़ी सिफ़ारिश करती थीं।
उन्होंने ग़ुलामी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हुए विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया और ऐलान किया कि वह अब कभी विदेशी कपड़ा नहीं पहनेंगी। तहरीक-ए-आज़ादी के ठीक ग्यारहवें दिन ही उनका इंतक़ाल हो गया |
ज़ाहिदा ख़ातून शेरवानिया की ज़िंदगी इस बात की मिसाल है कि औरतें भी मुल्क की आज़ादी और समाज की बेहतरी में बराबर का किरदार अदा कर सकती हैं।
