Reading time : 0 minutes
1857 की ग़दर की कहानी अज़ीज़न बाई के बिना अधूरी है। 1832 में लखनऊ में पैदा हुईं अज़ीज़न बाई ने नवाब शमशुद्दीन की शहादत के बाद अंग्रेज़ों से बदला लेने की ठानी। उन्होंने औरतों का प्लाटून “स्त्रान्ज़ा” बनाया, जो सिपाहियों की मदद करता, गोला-बारूद पहुँचाता और ज़रूरत पड़ने पर तलवार उठाकर मोर्चे पर उतर जाता।
फ़ौजी वर्दी में घोड़े पर सवार होकर जब अज़ीज़न निकलतीं तो लखनऊ की गलियाँ “अज़ीज़न ज़िंदाबाद” के नारों से गूंज उठतीं। 7 जून 1858 को नाना साहेब के ऐलान पर उन्होंने अपनी प्लाटून के साथ अंग्रेज़ों से बहादुरी से जंग लड़ी।
गिरफ़्तारी के बाद अंग्रेज़ जनरल ने उन्हें माफ़ी माँगने का लालच दिया, लेकिन अज़ीज़न ने इंकार करते हुए “अंग्रेज़ मुर्दाबाद” के नारे लगाए। गुस्साए अंग्रेज़ों ने पहले गोली मारी, फिर फाँसी पर लटकाया और उसके बाद भी गोलियाँ चलाकर शहीद कर दिया।
अज़ीज़न बाई ने साबित कर दिया कि औरतें भी आज़ादी की जंग की सच्ची सिपाही हैं। उनकी शहादत आज भी हौसले और क़ुर्बानी की मिसाल है।
