अनीस बेगम किदवई : आज़ादी और इंसानियत की आवाज़

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अनीस बेगम किदवई का नाम आज़ादी की लड़ाई और इंसानियत की सेवा, दोनों से जुड़ा हुआ है। 1906 में बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में पैदा हुईं अनीस बेगम का ताल्लुक़ ऐसे ख़ानदान से था, जिसने आज़ादी की तहरीक़ को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया। उनके शौहर शफ़ी अहमद किदवई और क़रीबी रिश्तेदार रफ़ी अहमद किदवई, दोनों ही हिंदुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद के अहम किरदार थे।

ख़िलाफ़त मूवमेंट के दौरान जब उनके शौहर गिरफ़्तार कर लिए गए और सरकारी नौकरी भी छिन गई, तब अनीस बेगम ने हर मुश्किल का डटकर सामना किया। 1946 में जब मुल्क के बंटवारे की बात चली, तो उन्होंने पूरे हौसले के साथ इसका विरोध किया और घर-घर जाकर लोगों को समझाया कि तक़सीम मुसलमानों के हक़ में नहीं है। लेकिन बंटवारे के दौरान सांप्रदायिक दंगों में उनके शौहर की हत्या कर दी गई। यह सदमा उनके हौसले को तोड़ नहीं पाया, बल्कि और मज़बूत कर गया।

गांधीजी ने उनकी जद्दोजहद को सलाम करते हुए उन्हें महिला कांग्रेस से जोड़ने की दावत दी। अनीस बेगम ने दिल्ली और उसके आस-पास राहत और पुनर्वास का बड़ा काम किया। आज़ादी के बाद 1957 और 1968 में वह राज्यसभा के लिए चुनी गईं। उनकी किताब “नज़र-ए-खुशगुज़रे” बंटवारे और इंसानी दर्द की गवाही देती हैं।

अनीस बेगम किदवई की ज़िंदगी साबित करती है कि आज़ादी की तहरीक सिर्फ़ सियासी नहीं, बल्कि इंसानियत और क़ौमी एकता की जंग भी थी। उनका इंतिक़ाल 16 जुलाई 1982 को हुआ।

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