वीर अब्दुल हमीद: 1965 की जंग में पाकिस्तान के पैटन टैंकों के सामने अकेले खड़े रहें

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आज, हिन्दुस्तान के एक अज़ीम सपूत की यौम-ए-शहादत है, जिन्होंने अपनी बेमिसाल बहादुरी से वतन का दिफा करते हुए अपनी जान क़ुर्बान कर दी। हम बात कर रहे हैं परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद की, जिनकी शहादत की दास्तान हर हिन्दुस्तानी के दिल में हमेशा ताज़ा रहेगी। ये अफ़सोस की बात है कि हम अक्सर अपने शहीदों को भुला देते हैं, लेकिन आज उनके यौम-ए-शहादत पर हम उन्हें याद करेंगे और उनकी अमर कहानी को एक बार फिर ज़िंदा करेंगे।

1965 की जंग में पाकिस्तान के पास अमेरिका से मिले “पैटन टैंकों” का एक ज़ख़ीरा था। इन टैंकों को “लोहे का शैतान” कहा जाता था और पाकिस्तान को इन पर बड़ा नाज़ था। वहीं, हिन्दुस्तानी फ़ौज के पास इन टैंकों का मुक़ाबला करने के लिए सिर्फ़ थ्री नॉट थ्री राइफ़लें थीं।

पाकिस्तान की फ़ौज पंजाब पर क़ब्ज़ा करने की नीयत से आगे बढ़ रही थी और तरनतारन ज़िले के खेमकरण सेक्टर में असल उत्तर गाँव तक पहुँच गई थी। हमारी फ़ौज पीछे हट रही थी, तभी सामने आए वीर अब्दुल हमीद। उनके पास अमेरिकी पैटन टैंकों के सामने खिलौने सी लगने वाली 106 एमएम रिकॉइललेस राइफ़ल वाली गन माउंटेड जीप थी।

ज़रा सोचिए, क्या मंज़र रहा होगा उस वक़्त।

“नज़रें थीं फ़ौजी की, सामने था लोहे का पहाड़;

हिम्मत थी ऐसी कि, दुश्मन की रूह भी काँप उठी।”

जीप पर सवार अब्दुल हमीद ने अपनी बंदूक से पैटन टैंकों के कमज़ोर हिस्सों पर इतने सटीक निशाने लगाए कि एक के बाद एक “लोहरूपी दैत्य” पैटन टैंक तबाह होने लगे। अब्दुल हमीद की ये बेमिसाल जुर्रत देखकर हिन्दुस्तानी सिपाही में नया जोश भर गया। उन्होंने एक-एक करके दो दिनों में सात पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नेस्तनाबूद कर दिया।

पंजाब का असल उत्तर गाँव पाकिस्तानी टैंकों की क़ब्रगाह में बदल गया। पाकिस्तानी सिपाही जान बचाकर भागने लगे, लेकिन वीर हमीद मौत बनकर उनका पीछा करते रहे और अपनी जीप से भागते हुए सिपाहियों को भी मारते गए।

“न झुकने दिया सर वतन का, न मिटने दी शान;

हमीद ने लिख दी शौर्य गाथा, बन गए हिन्दुस्तान की पहचान”

9 सितंबर, 1965 को एक बदक़िस्मत वाक़्या पेश आया। अचानक एक गोला अब्दुल हमीद की जीप पर आ गिरा और वो बुरी तरह ज़ख़्मी होकर शहीद हो गए। उनकी शहादत का ऐलान 10 सितंबर, 1965 को किया गया, जब पाकिस्तानी फ़ौज को पंजाब से खदेड़ दिया गया था।

वीर अब्दुल हमीद का जिस्म इतना मुंतशिर हो चुका था कि उन्हें वहीं पंजाब के तरनतारन ज़िले के खेमकरण सेक्टर के असल उत्तर गाँव में दफ़न कर दिया गया।

ये कहना ग़लत न होगा कि अगर वीर अब्दुल हमीद न होते, तो आज पूरा पंजाब, अमृतसर और स्वर्ण मंदिर भी पाकिस्तान का हिस्सा होता।

ये हमारा अफ़सोसनाक मुक़द्दर है कि वतन के लिए इतना बड़ा बलिदान देने वाले इस नायक के परिवार को हुकूमतों की बेरुख़ी का सामना करना पड़ा। उनकी अहलिया रसूलन बीबी ज़िंदगी भर मदद के लिए सरकारों को ख़त लिखती रहीं, लेकिन उन्हें सिर्फ़ फ़ोटो सेशन के लिए बुलाया गया।

वीर अब्दुल हमीद की बेटी, नज़बुन, को अपने शौहर की रिटायरमेंट के बाद की बाक़ाया रक़म के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटने पड़े। उन्हें एश्योर्ड करियर प्रमोशन, लीव एनकैशमेंट, छठे वेतन आयोग के एरियर और ग्रेच्युटी का भुगतान सालों तक नहीं हो सका, जिससे परिवार को फ़ाक़ाकशी का सामना करना पड़ा।

इससे भी ज़्यादा दर्दनाक वाक़्या तब पेश आया जब वीर अब्दुल हमीद के बेटे, अली हसन, ने कानपुर के हैलट अस्पताल में ऑक्सीजन न मिलने के सबब दम तोड़ दिया। अस्पताल के मुलाज़िमीन को वीर अब्दुल हमीद के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था, जिससे उनके बेटे को कोई इमदाद नहीं मिल सकी।

यहाँ तक कि वीर अब्दुल हमीद के गाँव में उनके नाम पर बने स्कूल का नाम भी बदल दिया गया, जिसे सोशल मीडिया पर भारी एहतेजाज के बाद फिर से उनके नाम पर रखा गया।

वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा…

ये मिसरा हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अपने शहीदों को वो इज़्ज़त दे पा रहे हैं, जिसके वे हक़दार हैं? आज उनके यौम-ए-शहादत पर, हम सभी को ये अज़्म करना चाहिए कि वीर अब्दुल हमीद जैसे नायकों की शहादत हम कभी नहीं भूलेंगे। ये हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी दास्तानों को ज़िंदा रखें और ये यक़ीन दिलाएँ कि उनके ख़ानदान को कभी भी बेरुख़ी का सामना न करना पड़े।

आइए, आज वीर अब्दुल हमीद की यौम-ए-शहादत पर उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करें। अल्लाह उन्हें मग़फ़िरत अता फ़रमाए।

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