बचपन में एक गाना सुना करता था – “ एक बंगला बने न्यारा…” शायद के एल सहगल की कालजयी आवाज़ में था. आज़ जीवन के अंतिम चरण में सुना और देखा: “ एक कक्षा बनी न्यारी…”
By रामशरण जोशी
जी, यह बिल्कुल सत्य घटना है. यह कक्षा क्यों न्यारी है, इसकी एक रोचक कहानी है. इस कहानी में गांव है, जाति -संरचना है, शिक्षक हैं, विद्यार्थी हैं, बचपन की यादें हैं, और हायर सेकेंडरी स्कूल है.
राजधानी दिल्ली से करीब दो सौ किलो मीटर के फासले पर एक गांव बसा हुआ है — बसवा. राजस्थान के दौसा ज़िले का यह हिस्सा है. प्रसंग वश, कभी यह कांग्रेस के चर्चित दिवंगत नेता राजेश पायलट की निर्वाचन भूमि रह चुका है. इस बार भी कांग्रेस के प्रत्याशी ही इस क्षेत्र से चुने गए हैं.
इस गांव में मेरे प्रारंभिक स्कूली दिनों की यादें बास करती हैं. पांचवें दशक की. तब न यहां बिजली थी, न नल और न बैंक। पक्की सड़क बराये नाम थी. कुछ घरों में अखबार ज़रूर आते थे — राष्ट्रदूत और लोकवाणी. घड़ियां भी नहीं थीं.
हम छात्र स्कूल के घंटे की आवाज़ से तैयार हुआ करते थे
वैसे मंदिर -मस्ज़िद थे. साम्प्रदायिक सौहार्द था. ताज़िये निकला करते थे. उनके नीचे से मैं निकला करता था.
मां कहा करती थी, “बेटा, इससे सबाब मिलेगा.”
पीर- पगार और साधू-संत-समाधि, सब एक ही माला में पिरोये लगते थे. हम सब होली-दीवाली और ईद के रंग में रंगे रहा करते थे.
तब इसकी आबादी पांच-छह हज़ार थी. आज़ 15 हज़ार के आस-पास होगी. अब यह गांव आधुनिक सुविधाओं से लैस है; गांव बाहर कॉलेज बन गया है; पक्की सड़कें हैं; गंवई नुमा मॉल हैं; बिजली है, पानी है, और नया स्टेशन बन गया है; चौड़ी रेल पटरियां बिछ गयी हैं; कार और मोटर बाइकों का झमेला है.
स्कूल में को-एजुकेशन हैं. लड़कियां साइकिल और स्कूटी चलाती हैं. छतों पर टीवी डिस्क ऊग आई हैं. मोबाइल सटे रहते हैं कानों से.
ई-रिक्षा की भरमार है, बैलगाड़ियां गुम हैं.
पर कुछ ऐसा भी जो नहीं बदला है. उसे देख कर यही लगता है कि बसवा जी रहा है बीती सदी में ही. गांव की कुछ ऐसी सरहदें हैं जिसे आधुनिक राज्य व्यवस्था और संचार विस्फोट ढहा नहीं सके हैं; डॉ आम्बेडकर की ‘सामाजिक आज़ादी और नेहरू का वैज्ञानिक मानस’, दोनों ही लाचार दिखाई देते हैं.
मेरा मोहल्ला था बक्षियों का. लगभग सौ प्रतीशत ऊंची जातियों का. वैसे कुछ घर ऐसे भी थे जो पिछड़ी जाति के पुश्तैनी कर्म से जुड़े हुए थे. पर वर्चस्व था सवर्णों का ही. मेरे पुरखों का मकान भी यहीं था.
लेकिन, संयुक्त परिवार के सदस्य बारी बारी से शहरी भारत में बस्ते चले गए, और पांच कमरों व बाड़े की विरासत ढूंढ की शक्ल में बदलती चली गई. कभी दीवार गिरी और कभी आस-पड़ोस के अतिक्रमण की शिकार बनी.
परिजनों ने तय किया कि इस स्थान को किसी स्वयंसेवी संस्था को दान में दे दिया जाए. लेकिन, स्थानीय राजनीति के टंटों के कारण सम्भव नहीं हो सका
फिर कुछ के प्रयास से एक मीणा परिवार आगे आया. और उसने खण्डहर को ख़रीदने की पेशकश की. यहीं से कहानी दुखद मोड़ लेने लगी.
जाति-प्रथा तमतमाने लगी। स्वयंभू भद्र्लोकों की पीड़ा थी कि क्यों मीणा समाज के व्यक्ति को ज़मीन दी जा रही है! परजाति को बसाया जा रहा है!
बैठकों पर बैठक होने लगी. आक्रामक बहसें चलीं. यहां तक याद दिलाया गया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदिवासी को भी बृहत्तर हिन्दू समाज का ही हिस्सा बताने का दावा करता है. फिर भेदभाव क्यों?
बहसों में शिरकत की सरपंच और गांव के अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों ने. बीच -बचाव हुआ, राज़ी नाम हुआ और कोरट-कचेहरी तक मामला पहुंचा। महीनों लग गए.
मुझे अपना सपना बिखरता सा लगा. लेकिन, उम्मीद और हिम्मत बनी रही. कहानी के मुख्य किरदार, भगवान सहाय मीणा, भी डटे रहे अपने संकल्प पर.
आखिरकार, कहानी का पटाक्षेप शांतिपूर्वक हो गया. तय किया गया कि ढूंढ की बिक्री से प्राप्त सम्पूर्ण राशि से हायर सेकेंडरी स्कूल के लिए एक कक्षा बनवा दी जाए.
इस काम में स्कूल के प्रिंसिपल बैरवा जी और उनकी टीम ने सकारात्मक भूमिका निभाई। करीब दो-ढाई महीनों के प्रयास में एक अच्छा-ख़ासा पक्का क्लासरूम तैयार हो गया. इस कक्ष में बैठ कर करीब 60-70 विद्यार्थी सुविधापूर्वक पढ़ सकते हैं. गोष्ठियों का आयोजन भी किया जा सकता है.
महात्मा गाँधी ने 8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का आह्वान किया था. तय किया गया इस ऐतिहासिक दिन के अवसर इस कक्ष का लोकार्पण कर दिया जाए. जहां 1942 का नारा था ‘भारत छोड़ो’, लेकिन आज़ का नारा होना चाहिए ‘जाति तोड़ो और नया भारत बनाओ
यह भी तय हुआ कि लाल फीता काटकर चार छात्राएं (अनुसूचित जाति, जन जाति, पिछड़ा वर्ग और अन्य) क्लास रूम का उद्घाटन करें. ऐसा ही किया गया.
हम सभी की उपस्थिति और भावनाओं से भरे वातावरण में आरती सैनी, नीरू जोगी, दर्शना कोली और कोमल मीणा ने कक्ष को स्कूल को अर्पित कर दिया. इसके साथ ही कक्ष, कक्षा में रूपांतरित हो गया.
‘कक्षा न्यारी’ को सावित्री बाई फुले, बिरसा मुंडा, भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर के चित्रों से सुसज्जित किया गया था. ये चारों ही योद्धा हैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक स्वतंत्रता के.
इस सादगीपूर्ण अवसर पर उपस्थित वक्ताओं ने विद्यार्थियों से आधुनिक भारत को विवेकशील व तर्कशील बनाने के लिए बड़े स्वप्न देखने की प्रेरणा दी, शिक्षक और शिक्षार्थी के मध्य संवाद-शैली को अपनाने, और वैज्ञानिक मानस (साइंटिफिक टेम्पर) को प्रोत्साहित करने का आग्रह किया. इस अनूठे आयोजन का संचालन शिक्षक प्रकाश चतुर्वेदी और अध्यक्षता प्राचार्य बेरुआ ने की.
ज़ाहिर है, यह प्रयास न तो पहला है, न अंतिम. बस, ठहरी ताल-तलैया में कंकरी फेंकने के समान है. सरहदों को तोड़ना आसान नहीं है, लेकिन नामुकिन भी नहीं है! कंकरी-फेंक मिशन चलते रहना चाहिए. बस.
Ramsharan Joshi is a seasoned journalist, well-known author and distinguished academic. He is based in Delhi. Picture above: school girl with Madhuji, wife of Ramsharan Joshi.