राज बेगम: कश्मीर की बुलबुल, जिसकी आवाज़ आज भी गूंजती है

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कश्मीर की धरती पर जब औरतों के लिए गाना-बजाना समाज की नज़र में नामुमकिन था, तब राज बेगम ने अपनी आवाज़ से परंपराओं की दीवारें तोड़ीं। उन्हें “बुलबुल-ए-कश्मीर” कहा गया| एक ऐसी गायिका जिनकी तान ने पीढ़ियों को प्रेरित किया।

27 मार्च 1927 को श्रीनगर के मगरमल बाग़ में जन्मी राज बेगम शुरुआत में शादियों और छोटी महफ़िलों में गाती थीं। उनकी मधुर आवाज़ से प्रभावित होकर ग़ुलाम क़ादिर लंगू ने 1954 में उन्हें रेडियो कश्मीर से जोड़ा। उसी समय से रेहती, “राज बेगम” बन गईं, और कश्मीर की पहली महिला स्वर-साधिका के तौर पर इतिहास में दर्ज हो गईं।

शुरुआती दिनों में आलोचनाओं का सामना करते हुए वह बुरक़ा पहनकर स्टूडियो जातीं, लेकिन रेडियो और बाद में दूरदर्शन के जरिये उनकी आवाज़ हर कश्मीरी की सुबह का हिस्सा बन गई। 1950 से 1980 तक उनकी तान घाटी की पहचान बन गई। उनके कदमों के बाद नसीम अख्तर, शमीमा देव और कैलाश मेहरा जैसी कई महिला कलाकारों ने हिम्मत पाई।

राज बेगम को पद्मश्री (2002) और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2013) जैसे बड़े सम्मान मिले। 26 अक्तूबर 2016 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी धुनें अब भी ज़िंदा हैं।

उनकी ज़िंदगी पर बनी फिल्म Songs of Paradise आज दुनिया को याद दिला रही है कि कैसे एक आवाज़ समाज की सोच बदल सकती है और संस्कृति को नई दिशा दे सकती है।

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