फ़िलिस्तीन की मान्यता: संघर्ष का फल या दुनिया की जागरूकता?

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वरिष्ठ फ़िलिस्तीनी नेता इज़्ज़त अल-रेशक का यह कहना कि दुनिया भर से मिलती फ़िलिस्तीन की मान्यता एक “राजनीतिक और नैतिक जीत” है, यह केवल एक बयान नहीं बल्कि मौजूदा हालात का आईना भी है। दशकों से जारी संघर्ष, फ़िलिस्तीनी जनता की क़ुर्बानियाँ और उनकी जद्दोजहद अब धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असर छोड़ रही हैं।

रेशक का दावा है कि इन मान्यताओं ने यह साफ़ कर दिया है कि इज़राइल का नैरेटिव अब दुनिया के सामने कमजोर हो चुका है। क़ब्ज़े की नीतियाँ और ज़ुल्म अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने उजागर हो रहे हैं, और न्याय का पलड़ा फ़िलिस्तीन की ओर झुक रहा है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ़ मान्यता ही काफी है? रेशक खुद भी इस ओर इशारा करते हैं कि असली चुनौती इन मान्यताओं को व्यावहारिक क़दमों में बदलने की है। सिर्फ़ कागज़ पर दर्ज बयान या संसदों के फ़ैसले तब तक अधूरे हैं जब तक वे ज़मीन पर बदलाव न ला सकें।

रेशक की बातों से यह भी झलकता है कि फ़िलिस्तीनी नेतृत्व मानता है—”आज़ाद फ़िलिस्तीन एक अटल सच्चाई है”, चाहे उसे दबाने की कितनी भी कोशिश की जाए। यही भरोसा उनकी राजनीति और आंदोलन की रीढ़ है।

आज जब दुनिया के कई मुल्क फ़िलिस्तीन को मान्यता दे रहे हैं, तो यह सिर्फ़ फ़िलिस्तीन की जीत नहीं बल्कि वैश्विक चेतना की एक नई शुरुआत भी है। मगर वास्तविक न्याय और आज़ादी के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को महज़ प्रतीकात्मक कदमों से आगे बढ़कर, इज़राइली क़ब्ज़े पर ठोस दबाव बनाना होगा।

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