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दिल्ली, 1931 — जंग-ए-आज़ादी के सुनहरे सफ़ों में दर्ज नामों में एक है आमना कुरैशी, जिन्होंने अपने हुनर, हिम्मत और क़ुर्बानी से आज़ादी की तहरीक को मज़बूती दी। दिल्ली के मशहूर ख़द्दर घराने में जन्मी आमना बचपन से ही सादा ज़िंदगी और मुल्क के लिए कुछ करने के जज़्बे से भरी थीं।
महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने खादी बुनना शुरू किया और औरतों में अंग्रेज़ी कपड़े के बहिष्कार का पैग़ाम फैलाया। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कई बार जेल भी गईं। आमना का घर आज़ादी के सिपाहियों का ठिकाना बन गया, जहां गुप्त बैठकें होतीं और योजनाएं बनतीं।
आमना कुरैशी ने सिर्फ़ कपड़ा बुनने तक ख़ुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि औरतों को तालीम देकर उन्हें आंदोलन में शामिल किया। उनकी कोशिशों ने दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में आंदोलन को नई ताक़त दी।
आज़ादी के बाद भी आमना समाजसेवा में सक्रिय रहीं, ख़ासकर महिलाओं की तालीम और हक़ के लिए। आज उनका नाम इस बात का सबूत है कि मुल्क की आज़ादी में औरतों की भूमिका किसी भी मर्द से कम नहीं रही।
आमना कुरैशी की ज़िंदगी, हिम्मत और कुर्बानी का यह सफ़र आने वाली नस्लों के लिए हमेशा मिसाल रहेगा।
