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बिरादरे वतन के नाम
बिरादरे वतन की खिदमत में उनके इस भाई का सलाम पहुंचे जो उनकी इज्जत और नामूसे वतन की खातिर फैजाबाद जेल में कुरबान हो गया। आज जबकि मैं यह पैगाम बिरादरे वतन के नाम भेज रहा हूं, इसके बाद मुझको तीन दिन और चार रातें और गुजारनी हैं और फिर मैं हूंगा और आगोश-ए- मादरे वतन होगा। हम लोगों पर जुर्म लगाए गए थे वह इस सूरत में पब्लिक में लाए गए कि हमको बहुत से लोग जो गैर-तालीमयाफ्ता या हुकूमत के दस्तर ख्वान की पसे खुर्दा (बची हुई) हड्डियां चिचोड़ने वाले थे, डाकू, खूनी, कातिल के लकब से पुकारा किए। मैं आज इस फांसी की कोठरी में बैठा हुआ भी खुश हूं और अपने उन भाइयों का शुक्रिया अदा करता हूं। और कहूंगा –
मर मिटा आप पर कौन आपने यह भी न सुना,
आप की जान से दूर आपसे शिकवा है मुझे।
खैर, यह तुम्हारा फैल है हमारी कुर्बानियों को कबूल न करो और यह हमारा फर्ज है कि तुम बार-बार ठुकराओ मगर हम तुम्हारा ही दम भरे जायेंगे। बिरादरे वतन, मैं उसी पाक मुकद्दस वतन की कि कसम खाकर कहूंगा कि हम नामूसे वतन पर कुरबान हो गए। क्या यह शर्म की बात नहीं थी कि हम अपनी आंखों से देखते कि नित नए मजालिम हो रहे हैं और गरीब हिंदोस्तानी हर हिस्सा-ए-मुल्क और खित्ता-ए-एदुनिया जलील और रुसवा हो रहे हैं और कहीं न ठिकाना है न सहारा। किस्सा मुख्तसर यह है कि हमारा वतन भी हमारा नहीं। हम पर टैक्स की भरमार, हमारी माली हालत का रोज-ब-रोज गिरते जाना, 33 करोड़ बहादुर हिंदोस्तानी हिंदू और मुसलमान भेड़ बकरियों की मानिन्द बनाए गए। हमारे गोरे आका हमें ठोकरे मार दें तो बाज पुर्स न हो। जनरल डायर जलियान वाला बाग को नमूनये हशर बना दें। हमारी माताओं की बेइज्जती करें। हमारे बूढ़ों और बच्चों पर बम के गोले, गम मशीनों की गोलियां बरसाएं और हर नया दिन हमारे लिए नयी मुसमीबतें लेकर आए फिर भी हम मस्ते बादये गफलत रहें। और एशो-इशरत में अय्यामे-जवानी गुजार देते। यह ख्याल रहे-
जनूने हुब्बे वतन का मजा शबाब में है,
लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे।
जो भी किया, भला किया, आज हम नाकाम रहे, डाकू हैं। कामयाब होते मुहिब्बे वतन के पाक लकब से पुकारे जाते और आज जो हम पर झूठी गवाहिंयां दे गए, हमारे नाम के जयकारे लगाते-
बहे बहरे फना में जल्द यारब लाश बिस्मिल की,
कि भूखी मछलियां हैं जौहरे शमशीरे कातिल की।
आह! क्या ऐसे दौर में जिंदगी प्यारी ख्याल की जा सकती है? जबकि हमारे ही गिरोहे-सियासी में खल फिशार (झगड़ा-झंझट) मचा है। कोई तबलीग (इस्लीमीकरण के लिए संगठन) का दिलदादा है और कोई शुद्घि (घर वापसी) पर मर मिटने को बाइसे निजात समझ रहा है। मुझे तो रह- रह कर इन दिमागों और अकलमंदों पर तरस आ रहा है, जो कि बेहतरीन दिमाग हैं और माहरीने सियासत हैं। काश कि वह आजादी-ए-मिस्र की जद्दोजहद, एहरारान (स्वतंत्रता सेनानी) मिस्र के कारनामे और बरतानवी सियासी चालें स्टेडी कर लें और फिर हमारे हिंदोस्तान की मौजूदा हालत से कुकाबिला व मवाजना करें क्या वही ठीक हाल इस वक्त नहीं है। गर्वमेंट के खुफिया एजेंट प्रोपेगंडा मजहबी बुनियाद पर फैला रहे हैं। इन लोागों का मकसद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है कल्कि चलती गाड़ी में रोका अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता जो मुझे अय्यामे फरारी में और बाद में मालूम हुआ। यहां तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी काैन था कि काबुल में संगसार किया गया था। वह एक ब्रिटिश एजेंट था जिसके पास हमारे करम फरमा खान बहादुर तसद्दुक हुसैन साहब, डिप्टी सुपरिण्टेंड सीआईडी, गवर्मेंट ऑफ इंडिया पैगाम लेकर गए थे मगर बेदार मगज (समझदार) काबुल सरकार ने इलाज जल्द कर दिया और मर्ज फैलने नहीं दिया। मैं अपने हिंदू और मुसलमान भाइयों को बता देना चाहता हूं कि सब ढोंग है जो कि सीआईडी के खुफिया खजाने के रुपए से रचा गया है। मैं मर रहा हूं और वतन पर मर रहा हूं। मेरा फर्ज है कि हर नेकोबद बात भाइयों तक पहुंचा दूं। मानना न मानना उनका काम है। मुल्क के बड़े-बड़े लोग इससे बचे हुए नहीं हैं। पस अवाम को आंखे खोलकर इत्तबा (गौर करन) करना चाहिए। भाइयों! तुम्हारी खानाजंगी, तुम्हारी आपस की फूट, तुम दोनों में से किसी को भी सूदमंद (लाभदायक) साबित नहीं होगी। यह गैर मुमकिन है कि सात करोड़ मुसलमान शुद्घ हो जाएं (हिंदू धर्म ग्रहण कर लेें) वैसे ही यह भी महमल(निरर्थक) सी बात है कि 22 करोड़ हिंदू मुसलमान बना लिए जायें। मगर हां, यह आसान है कि यह सब मिलकर गुलामी की तौग गले में डाले ले। ऐ वह कौम जिसका कोई कौमी झंडा नहीं- ऐ वह कि तेरा वतन मेरा वतन नहीं- ऐ वह कि तू दूसरों की तरफ हाथ फैलाए हुए रहम की दरख्वास्त पर नजर रखने वाली बेकस कौम तेरी अपनी गलतियों का ही नतीजा है कि आज तू गुलाम है और फिर भी वही गलतियां कर रही है कि आने वाली नसलों के लिए धब्बा गुलामी का छोड़ जाएगी कि जो भी सरजमीने हिंद पर कदम रखेगा, गुलामी में ही कदम रखेगा और गुलाम बनाएगा। ऐ खुदा बंदे कुद्दुस क्या कोई ऐसा सवेरा नहीं आएगा जिस सुबह को तेरा आफताब आजाद हिंदुस्तान पर चमके? और फिजाएं हिंद आजादी के नारों से गूंज उठे? कांग्रेस वाले हों या सौराजिस्ट, तबलीग वाले हों या शुद्घी वाले, कम्युनिस्ट हों या रिवोल्यूशनरी, अकाली हो या बंगाली। मेरा पयाम हर फरजन्दे वतन को पहुंचे। मैं हर शख्स को उसकी इज्जत और मजहब का वास्ता देता हूं। अगर वह मजहब का कायल नहीं तो उसके जमीर को और जिसको भी वह मानता हो अपील करता हूं कि हम काकोरी केस के मर जाने वाले नौजवानों पर तरस खाओ और फिर हिंदाेस्तान को सन 20 व 21वाला हिंदाेस्तान बना दो। फिर अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तेहाद और इत्तेफाक (एकता और सहमति) का नजारा सामने हो। बल्कि उससे बढ़कर हो और मुकम्मल आजादी का जल्द-अज-जल्द ऐलान करकेे इन गोरे आकाओं को हटा दो कि ये काले अब केचुली उतार चुके हैं और अब वह किसी मंत्र से बस में नहीं होंगे- तबलीग और शुद्घि वालों खुदारा आंखें खाेलो, कहां थे और कहां पहुंच गए, अपनी-अपनी शान खत्म करो, सोचो तो मजहब में जबरदस्ती इख्तिलाफ-ए- राय पर जंग, एक काम नामुकम्मल छोड़ कर दूसरी तरफ रुजू हो गए (मुड़ गए)। आज कौन ऐसा हिंदू या मुसलमान है जो मजहबी आजादी इतनी रखता है कि जितना उसका हक है। क्या गुलाम कौम का कोई मजहब होता है? तुम अपने मजहब का सुधार कर सकते हो? तुम खुदा की इबादत पुरसुकून तरीके पर करो। तुम ईश्वर का ध्यान शांति के साथ करो और दोनों मिलकर इस सफेद भूत को मंत्र से जंत्र से मार उतार भगाओ। सब करतूत इसी की है। जब यह भूत उतर जाएगा, हमारी आंखें खुल जाएंगी। आओ हमारी भी सुनो, पहले हिंदोस्तान को आजाद करो फिर कुछ और सोचना। खुदा ने जिसके लिए जो रास्ता मुन्तखिब कर दिया है, वह उसी पर रहेगा। तुम किसी को भी नहीं हटा सकते।आपस में मिलजुल के रहो और मुत्तहिद हो जाओ नहीं तो सारे हिंदोस्तान की बदबख्ती का वार तुम्हारी गर्दन पर है और गुलामी का बाइस तुम हो।
कम्युनिस्ट ग्रुप से अशफाक की गुजारिश है, तुम इस गैर मुल्क की तहरीक को लेकर जब हिंदाेस्तान में आए हो तो तुम अपने को गैर मुल्की ही तुसव्वुर करते हो, देसी चीजों से नफरत करते हो। देशी चीजों से नफरत, विदेशी पोशाक और तर्जे मुआशरत के दिलदादा हो, इससे काम नहीं चलेगा। अपने असली रंग में आ जाओ। देश के लिए जीओ, देश के लिए मरो। मैं तुमसे काफी मुत्तफिक हूं और कहूंगा मेरा दिल गरीब किसानों के लिए और दुखिया मजदूरों के लिए हमेशा दुखी रहा है। मैं अपने अय्यामें फरारी में भी अक्सर इनकी हालत देख कर रोया किया हूं क्याेंकि मुझे इनके साथ दिन गुजारने का मौका मिला है। मुझसे पूछो तो कहूंगा कि मेरा बस हाे तो मैं दुनिया की हर नामुमकिन चीज उसके लिए वक्फ कर दूं। हमारे शहरों की रोनक उनके दम से है। हमारे कारखाने उनकी वजह से आबाद और काम कर रहे हैं। हमारे पंपों से उनके ही हाथ पानी निकालते हैं, गरज की दुनिया का हर काम उनकी वजह से हुआ करता है। गरीब किसान बरसात के मूसलधार पानी और जेठ-बैसाख की तपती दोपहर खेतों पर जमा होते हैं और जंगल में मंडराते हुए हमारी खुराक का सामान पैदा करते हैं। यह बिलकुल सच है कि वह जो पैदा करते हैं, वह जो बनाते हैं उनमें उनका हिस्सा नहीं होता, हमेशा दुखी और मफलूक-उल हाल रहते हैं। मैं इत्तेफाक करता हूं इन तमाम बातों का जिम्मेदार हमारे गोरे आका और उनके एजेंट हैं, मगर इनका इलाज क्या है कि उनकाे इस हालत पर ले आए कि वे महसूस करने लगे कि वे क्या हैं? इनका वाहिद जरिया कि तुम उनके जैसी वजा-किता इख्तियार करो और जेन्टिलमैनी छोड़ कर देहात के चक्कर लगाओ। कारखानों में डेरे डालो और उनकी हालत स्टडी करो और उनमे एहसास पैदा करो। तुम कैथरीन, ग्रांड मदर ऑफ रशिया सावनेह-उम्री (जीवनी) पढ़ो और वहां के नौजवानों की कुर्बानियां देखो। तुम कालर टाई और उम्दा सूट पहन कर लीडर जरूर बन सकते हो, मगर किसानों और मजदूरों के लिए फायदेमंद साबित नहीं हो सकते। दीगर पोलिटिकल जमातों से मुत्तहिद होकर काम करो और अपनी माद्दापरस्ती (अहमन्यता) से किनारा करो कि यह फिजूल है जो तुम्हें दूसरी जमाअतों से अलग किए हुए हैं। मेरे दिल में तुम्हारे लिए इज्जत है और मैं मरते हुए भी तुम्हारे सियासी मकसद से बिल्कुल मुत्तफिक हूं। मै। हिंदोस्तान की ऐसी आजादी का ख्वाहिशमंद था जिसमें गरीब खुश और आराम से रहता और सब बराबर होते। खुदा मेरे बाद वह दिन जल्द लाए जबकि छत्तर मंजिल लखनऊ में अब्दुल्ल मिस्त्री, लोको वर्कशाप और धनिया चमार, किसान भी मिस्टर खलीकुज्जमा और जगत नारायण मुल्ला व राजा साहब महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठा नजर पड़े। मेरे कामरेडों- मेरे रिवोल्यूशनरी भाइयों- तुमसे क्या कहूं और तुमको क्या लिखूं, बस यह क्या यह तुम्हारे लिए क्या कम मुसर्रत (गौरव) की बात होगी, जब तुम सुनोगे कि तुम्हारा एक भाई हंसता हुआ फांसी पर चला गया और मरते-मरते खुश था। मैं खूब जानता हूं कि जो स्प्रिट तुम्हारा तबका रखता है- क्योंकि मुझको भी फख्र है और अब बहुत ज्यादा फख्र है कि एक सच्चा रिवोल्यूशनरी होकर मर रहा हूं। मेरा पयाम तुमकाे पहुंचाना फर्ज था, मैं खुश हूं- मसरूर हूं, मैं उस सिपाही की तरह हूं जो फायरिंग लाइन पर हंसता हुआ चला जा रहा हो और खंदकों मे बैठा हुआ गा रहा हो। तुम्हें दो शेर हसरत मुहानी साहब के लिख रहा हूं –
जान को महबेगम बना दिल को निहाद कर
बंद ये इश्क है तो यूं कता रहे मुराद कर।
ऐ कि निजाले हिंद की दिल से है तुझको आरजू
हिम्मते सर बुलंद से यास का इन्सदाद कर ?
(Make your life your beloved and make your heart a slave
If this is love then keep on wishing like this.
Oh, you desire the peace of India from your heart
With your head held high, do you dare to try?)
हजार दुख क्यों न आएं – बहरे ख ख्खार दरमियाने मौजे मारें – आतिशी पहाड़ क्यों न हाजल हो जाएं मगर ऐ आजादी के शेरो अपने अपने गरम खून को मातृभूमि पर छिड़कते हुएऔर जानों को मातृवेदी पर कुरबान करते हुए आगे बढ़े चले जाओ। क्या तुम खुश न होगे जब तुमको मालूम होगा कि हम हंसते हुए मर गए। मेरा वजन जरूर कम हो गया है, और वह मेरे कम खाने की वजह से हो गया है – किसी डर या दहशत की वजह से नहीं हुआ है – और मैं कन्हाई लाल दत्त की तरह अपना वजन न बढ़ा सका। मगर हां खुश हूं, और बहुत खुश हूं। क्या मेरे लिए इससे बढ़ कर कोई इज्जत कि बात होगी कि में सबसे पहला और अव्वल मुसलमान हूं जो आजादी-ए-वतन के खातिर फांसी पा रहा है –
मेरे भाइयों! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिए यूपी में मैदाने अमल तैयार कर दिया। अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। इससे ज्यादा उम्दा मौका तुम्हारे हजार प्रोपेगंडा से न होता। स्कूलों और कॉलेजों के तुलबा हमारी तरफ दौड़ रहे हैं, अब तुम्हें बहुत अर्से तक दिक्कत न होगी –
उठो उठो सो रहे हो नाहक पयामे बांग तो सुन लो,
बढ़ो कि कोई बुला रहा है निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर
ज्यादा क्या लिखूं, सलाम लो – और कमर बांध लो और मैदाने अमल में आन पहुंचो। खुदा तुम्हारे साथ हो, मेरी मुल्की मुत्तहिदा जमाअत के सियासी लीडरो मेरा सलाम कबूल करो और तुम हम लोगों को उस नजर न देखना जिन नजरों से दुश्मनाने वतन और खाइन-ऐ-कौम देखते थे। न हम डाकू थे, न कातिल –
कहां गया कोहेनूर हीरा किधर गई हाय मेरी दौलत,
यह सब का सब लूटकर कि उलटा हमीं को डाकू बता रहे हैं।
हमीं को दिन दहाड़े लूटा, फिर हमीं डाकू हैं। हमारे भाइयों और बहनों और बच्चों को जलियांवाला बाग में भून डाला और हमी को कातिल लूटेरा फैसले में लिखा जाता है। अगर हम ऐसे हैं तो वे कैसे हैं और किस खिताब से पुकारे जाने के काबिल हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान का सुहाग लूट लिया, जिन्होंने लाखों बहादूरों को अपनी गरज के लिए मेसोपोटामिया और फ्रांस के मैदानों में सुला दिया, खूंख्वार, जानवर, जालिम, दरिन्दे वह हैं या कि हम। हम बेबस थे, कमजोर थे सब कुछ सुन लिया और ऐ वतनी भाइयों यह तुमने सुनवाया आओ फिर मुत्तहिद हो जाओ, फिर मैदाने अमल में कूद पड़ो और मुकम्मल आजादी का ऐलान कर दो।
अच्छा अब मैं रुखसत होता हूं और हमेशा के लिए खैर आबाद कहता हूं। खुदा तुम्हारे साथ हो और फिजाएं हिंद पर आजादी का झंडा लहराए। मेरे पास न ताकत है कि हिमालय की चोटी पर पहुंचकर एक ऐसी आवाज निकालूं जो हर शख्स को बेदार कर दे और न वह असबाब है कि जिससे फिर तुम्हारे दिल मुश्त आइल कर दूं कि तुम उसी जोश से आगे बढ़ कर खड़े हो जाओ जैसे कि सन 20 व 21 में थे। मैं चंद सुतूर के बाद रुखसत होता हूं।
To every man upon this earth,
Death come soon or late]
But (then) how can a man die better,
Then facing erarful odds,
For the ashes of his fathers and,
Temples of his God.
बाद को मैं अपने उन भाइयों से रुखसत शुक्रिए के साथ होता हूं जिन्होंने हमारी मदद जाहिरा तौर पर की या पोशीदा। और यकीन दिलाऊंगा कि अशफाक आखिरी दम तक सच्चा रहा और खुश-खुश मर गया – और ख्यानाते वतनी का उस पर कोई जुल्म नहीं लगाया जा सकता। वतनी भाइयों से गुजारिश है कि मेरे बाद मेरे भाइयों को वक्त जरूरत न भूलें और उनकी मदद करें और उनका ख्याल रखें।
वतन पर मर मिटने वाला
अशफाक वारसी ‘हसरत’
फैजाबाद जेल
मेरी तहरीर मेरे वतनी भाइयों तक पहुंच जाए। ख्वाह विद्यार्थी जी (गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’) अखबार के जरिए या अंग्रेजी हिन्दी, उर्दू में छपवाकर कांग्रेस के अय्याम में तकसीम करा दें, मशकूर हूंगा। मेरा सलाम कबूल करें और मेरे भाइयों को न वह कभी भूलें और न मेरे वतनी भाई फरोमोश (विस्मृत) करें।
अलविदा।
अशफाक वारसी ‘हसरत’
फैजाबाद जेल,
19 दिसंबर, 1927
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरबन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है,
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तिहां होगा।
यू आए दिन की छेड अच्छी नहीं ऐ खंजर-ए-कातिल,
बता कब फैसला उनका हमारे दरमियां होगा?
शहीदों की मजार पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा।
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है,
रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफन में,
जिन्दगी बादे फना तुझको मिलेगी हसरत,
तेरा जीना तेरे मरने के बाद होगा।
वतन रहे शादकाम औ आजाद
हमारा क्या है हम रहेे रहे न रहे।
बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें राेज ही मरते देखा।
माैत इक रोज जब आनी है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझे मरना क्या है।
दरो दीवार पै हसरत से नजर करते हैं
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं
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