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– अशोक कुमार पांडे
कर्बला में एक जगह है – अज-दयार-उल-हिंदिया यानी हिंदुओं के रहने की जगह।
चौदह सौ साल पहले की बात है कि ईरान के पारसी राजा की दो बेटियाँ थीं, महर बानो और सहर बानो। पहली की शादी राजा चन्द्रगुप्त से हुई और नया नाम मिला- चंद्रलेखा। छोटी बहन की शादी इमाम हुसैन से हुई। समुद्रगुप्त इन्हीं चंद्रलेखा के बेटे थे।
अली-इब्न-ए-हुसैन ने खत लिखा था अपने मौसेरे भाई समुद्रगुप्त को मदद के लिए और भाई की आवाज़ पर समुद्रगुप्त ने पंजाब के मोहियाल ब्राह्मण राहाब दत्त खानदान के कुछ शूरवीरों को कर्बला में लड़ने के लिए भेजा। उनके पहुँचने से पहले इमाम हुसैन शहीद हो चुके थे।
[यह गुप्तवंश के समुद्रगुप्त नहीं लगते। समय का अंतर है।]
अफ़सोस में डूबे दत्त ब्राह्मणों ने अपनी तलवार अपनी ही गरदनों पर उतार देने का तय किया लेकिन उसी वक़्त इमाम हुसैन के एक समर्थक ने उनसे कहा कि जान देने से बेहतर है बदला लेना और वे जनाब-ए-मुख्तार की सेना में शामिल होकर बदले की जंग के लिए तैयार हो गए। हिन्दुस्तानी तलवारों का जौहर कर्बला के मैदानों में दिखा।
जिस जगह पर उनका क़याम हुआ था, उसे ही अज-दयार-उल-हिंदिया कहते हैं। कहते हैं कि जब वे रास्ते में थे तो इमाम हुसैन ने कहा था- मैं हिंदुस्तान से आती हुई खुशबू महसूस कर पा रहा हूँ।
इनके वारिसों को ‘हुसैनी ब्राह्मण’ कहा गया। माह-ए-मोहर्रम का सोग इस खानदान की विरासत में शामिल है और मुहब्बत की महक सदियों इन्हें सुर्खरू किए रही।
जाने-माने कलाकार जनाब सुनील दत्त साहब इसी खानदान से थे।
दुनिया नफ़रत से नहीं बनी है।
कर्बला के मैदान में थोड़ा सा लहू हिंदुस्तानियों का भी गिरा था। राहाब दत्त के खानदान ने न अपना दीन बदला न ईमान और फिर भी हक़ की लड़ाई में गर्दने कटवाने से नहीं चूके।
यह किवदंती सदियों से प्रचलन में है। किंवदंतियाँ इतिहास हो भी सकती हैं और नहीं भी, लेकिन उनका महत्त्व खत्म नहीं होता।
(ये लेखक के निजी विचार है। सहमत होना आवश्यक नहीं है।)