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ताजिकिस्तान में भारत के अयनी वायुसेना ठिकाने के बंद होने की ख़बर 28 अक्तूबर 2025 को मीडिया में सामने आई, जबकि यह ठिकाना वास्तव में तीन वर्ष पहले, यानी 2022 में ही बंद कर दिया गया था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, ताजिकिस्तान ने 2021 में ही भारत को सूचित कर दिया था कि वह इस समझौते को आगे नहीं बढ़ाएगा। यह निश्चित रूप से निराशाजनक समाचार है।
ऐसे ठिकाने रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं और देशों के बीच गहरे कूटनीतिक संबंधों के प्रतीक माने जाते हैं।
भारतीय मीडिया इस निर्णय के लिए रूस और चीन को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है, क्योंकि ये दोनों देश इस क्षेत्र में बाहरी देशों की सैन्य मौजूदगी नहीं चाहते थे। यह तर्क युक्तिसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि महाशक्तियाँ प्रायः अपने प्रभाव क्षेत्र में किसी अन्य शक्ति को प्रवेश नहीं करने देतीं। ताजिकिस्तान सहित मध्य एशिया के गणराज्य कभी रूसी साम्राज्य और सोवियत संघ का हिस्सा रहे हैं, जबकि चीन आज इन देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है।
वर्तमान समय में विश्व की बड़ी शक्तियाँ एक प्रकार के वैचारिक और सामरिक टकराव के मुहाने पर खड़ी हैं। प्रत्यक्ष युद्धों से अधिक, छद्म युद्धों का दौर चल रहा है। ऐसे में भारत और अमेरिका के गहरे होते रणनीतिक संबंधों से रूस और चीन का असहज होना स्वाभाविक है।
यदि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े में न होता, तो ताजिकिस्तान भारत का प्रत्यक्ष पड़ोसी देश होता।
हम मध्य एशियाई गणराज्यों से हज़ारों वर्षों पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन व्यवहारिक रूप से उनके साथ संबंधों को सुदृढ़ करने में सुस्ती दिखाते हैं। भारत की सहभागिता से विकसित हो रहा ईरान का चाबहार बंदरगाह अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया से गहरे संबंधों का एक सशक्त माध्यम बन सकता था — और अब भी बन सकता है।
जब डोनाल्ड ट्रम्प पिछली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तो उन्होंने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए थे, लेकिन चाबहार बंदरगाह को उन प्रतिबंधों से छूट दी गई थी। इसके बावजूद कई भारतीय कंपनियों ने उस परियोजना से हाथ खींच लिया और एनडीए सरकार ने भी उत्साह नहीं दिखाया। यही ढिलाई ताजिकिस्तान के सैन्य ठिकाने के मामले में भी दिखाई दी।
TAPI (तुर्कमेनिस्तान–अफ़ग़ानिस्तान–पाकिस्तान–भारत) गैस पाइपलाइन परियोजना पर दशकों से चर्चा जारी है। यह योजना पाकिस्तान की नीतियों के कारण तो ठप पड़ी ही, भारत का रवैया भी विशेष सक्रिय नहीं रहा। यूपीए सरकार के समय एक पेट्रोलियम मंत्री को इस परियोजना के समर्थन के कारण पद से हटाया गया था — और उनकी जगह… खैर।
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के पाँचों गणराज्यों के साथ सहयोग की अपार संभावनाएँ हैं। इन संभावनाओं को साकार करने के लिए भारत को राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक साहस का परिचय देना होगा।
इस समूचे प्रकरण को गहराई से समझने के लिए यूरेशिया — यानी “हार्टलैंड” — पर विद्वानों के विचारों का अध्ययन उपयोगी रहेगा। उदाहरणस्वरूप, रॉबर्ट काप्लान की पुस्तक The Revenge of Geography पढ़ी जा सकती है।
क्षेत्रवाद (Regionalism) पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है — अर्थात् अपने पड़ोस और निकटवर्ती क्षेत्रों के साथ संबंधों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
हमारे अधिकांश निकटवर्ती और आसपास के देश इस्लामिक हैं। अतः यह भी आवश्यक है कि देश के भीतर ऐसे तत्वों पर नियंत्रण रखा जाए जो इन देशों के प्रति असभ्य या अपमानजनक टिप्पणियाँ करते रहते हैं, क्योंकि कूटनीति केवल सीमाओं से नहीं, बल्कि भाषा और दृष्टिकोण से भी तय होती है।
