हर दिल जो प्यार करेगा

फिरदौस अज़मत सिद्दीक़ी

कबूतर जा, जा, जा

कबूतर जा

पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ…

1980 का वह रूमानी दिहाई, बस अभी स्वीट टीन मे दाखिला ही लिया था कि एक सफेद कबूतर ने हंगामा कर दिया। ग़ालिबन यह पहली और आख़िरी फिल्म थी जिसे आठ बार देखा, इसकी कोई बराबरी कर सकता है, तो ऐ नरग़िसे मस्ताना की आरज़ू ही जिसके लिए तो बस यूँ कहिए, बार बार देखो हज़ार बार देखो। प्रेम का प्रतीक वह सफेद डाकिया सिर्फ सिल्वर स्क्रीन पे नहीं रहा बल्कि गाँव-गाँव तक पहुँच चुका था।

घरों में टेपरिकार्डर की रील घिस गई थी, हर बारात में दूल्हे के दोस्त पूरे रास्ते नागिन डाँस करते हुए जैसे ही बारात दुल्हन के द्वार पर पहँचती, नाग-नागिन टोली का सबसे ख़ास दोस्त इतने नपे तुले अंदाज़ मे लड़की के घर के पास पहुँचकर कबूतर उड़ाता कि सीधे दुल्हन की छत पर कबूतर बैठता। ये वाक्या कोई सुना सुनाया नहीं बल्कि आँखों देखा बयान है। आज जब उम्र के अर्द्ध शतक पे क़दम रखते हुए उन दिनों की बेसाख्ता याद आ गई। वाक़ई लगता है कि हम कहाँ पहुँच गए हमारे बाल काले से ग्रे हो गए पर सलमान के दिवाने बच्चे से लेकर बूढ़े तक वैसे ही हैं, एक ऐसी माँ को भी जानते है, जिसने उसकी कभी कोई फिल्म ना देखी पर उसके जेल जाने पर मन्नत माँगी कि वह जल्द रिहा हो जाए। कैसे कोई उसे मारने की धमकी दे सकता है।

लव ट्राईएंगल फिल्मों मे तो पागल प्रेमी अपने रास्ते से हीरो को हटाने के लिए ऐसा करता रहा है, डर और अंजाम की सिरहन अब भी महसूस होती है, पर सलमान ने तो कभी आन स्क्रीन निगेटिव रोल भी ना किया।  यँहातक राधे के बाल भी लाखों के लिए ट्रेंड बन गया, जिसे कापी करने के लिए ख़ुद उसने मना किया कि यह फिल्म एक भूल थी। वह तो आँखों की ग़ुस्ताख़ियाँ भी माफ कराता है। 

यह अलग बात है कि कँवल की पँखुड़ियों सी, बग़ैर कुछ कहे बात करने वाली उन ख़ूबसूरत आँखों से क्या कभी ग़ुस्ताख़ी हुई हो। तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही, ऐसा क्या गुनाह किया कि भाई साहब नाराज़ हो गए और ज़िंदगी मौत पे अख़्तयार होने का दावा कर दिया। भाई का क़ौल न हो कि ख़ुदाई दावा बन गया। ख़ैर मौत का ज़ायका तो हर इसांन को चखना है इसका फैसला कोई इंसान कैसे कर सकता है।

भाई साहब तो उस वक़्त पैदा भी ना हुए थे जब भाई जान ने करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल मे घर बना लिया था। उसे कोई कैसे मारने की सोचे जो खुद प्यार बाँटते बाँटते लुट गए, लुटे पिटे को कोई क्या लूटेगा। पर भाईजान के प्यार की ज़ुबान नवउम्र भाई को समझ में नहीं आई। वह उसे उस बात की सज़ा देना चाहते हैं जिस ग़ल्ती की सज़ा वह क़ानूनन अदा कर रहे है। या मसला कुछ और है। दीदी के देवर से तो सब प्यार करते हैं यह ख़ून से तक़दीर लिखने का दावा तो कोई मजनून ही करेगा। ये मामला तो क..क..क किरन वाला लग रहा है, तू हाँ कर या ना कर तू है मेरा शिकार।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार मायानगरी मे काफी दिन से भाईगिरी की वैकेंसी खाली थी, नए नवेले भाई साहब के लिए यह बेहतरीन मौक़ा है, कि सबसे पावरफुल सितारे को डराओ बाकी सब ख़ुद ब खुद डिब्बे मे बंद हो जाएँगे। जहाँ तक मेरी याददाश्त काम करती है पहली बार जब सलमान पे एक सनसनी खेज ख़बर या यूँ कहें की टेलीफोनिक काल लीक हुई थी तो शायद यह इत्तेफाक नहीं था कि एक बड़े अख़बार का मुम्बई एडीशन उन्हीं दिनों लाँच हुआ था। शायद यह इत्तेफाक़ नहीं की एक न्यूज़ चैनल की बड़ी सीनियर ख़ातून ने इधर सीनियर खान का एक संजीदा इंटरव्यू लिया, काफी तफ्सील से बात हुई, ज़ाहिर सी बात है इतने नाज़ुक वक़्त पे दुनिया का कोई बाप अपने बेटे की ग़ल्ती को पब्लिक प्लेटफार्म पर क़बूल नहीं करेगा।

ख़ैर ख़बर ने सनसनी फैला दी कि वह बेक़सूर है। गर यह सच है तो असल शिकारी को सामने आकर अपना क़बूलनामा देना चाहिए। शायद एक बाप की उम्मीद थी कि अब तो उसका पीछा छोड़ दो पर ऐसा नही हुआ और हमारा खोजी मीडिया ये होने भी ना देगा फौरन ही कुछ घंटों बाद वादी पक्ष से समाज के एक प्रतिनिधि को ज़ूम काल पे ले लिया जिनके लिए यह मुद्दा निहायत ही संजीदा है, काला हिरण उनकी अक़ीदत का हिस्सा है, ज़ाहिर सी बात है जो लोग पिछले 25 साल से जंगल और उसके जीव की सुरक्षा के लिए एक क़ानूनी संघर्ष कर रहे हैं, जोकि क़ाबिल-ए तारीफ है। उनका ग़ुस्सा जायज़ है कि गर वह बेक़सूर है तो कोर्ट का ट्रायल क्या था।

ख़ैर सच्चाई जो भी हो मीडिया के पास हर थोड़ी देर पे एक के बाद एक ब्रेकिंग न्यूज़ है, कभी ज़ूम काल, कभी भाई की ख़बरों को पब्लिक तक पहुँचाना, सबकुछ इतना झट-पट हो रहा है कि पूरी ख़बर ही चटर पटर हो गई कि लग रहा है तमाम मीडिया के कैमरे या तो गैलेक्सी अपार्टमेंट मे चल रहे हैं या साबरमती मे। यहाँतक कि कुछ पल की प्रसिद्धि के लिए यू ट्यूब पर छोटेमोटे रंगबाजों व ट्रोलर की भीड़ लग गई है।

 ख़ैर गाँधी जी और बा के सत्याग्रह और स्वदेशी स्वालंबन के आह्वान के गुज़रने के एक लम्बे अरसे बाद साबरमती ने भी अपनी ख़ामोशी को तोड़ा। इस बार की चर्चा, चर्खा नहीं, ठाँए ठाँए है। गए दौर जब बापू कहते थे कोई एक गाल पे तमाचा दे तो दूसरा गाल पेश कर दो। संजू बाबा की जादू की झप्पी का भी असर ना रहा, रहे भी तो कैसे ये गन कल्चर इसी मायानगरी ने तो शुरू किया, अरे ओ दिवानों मुझे पहचानो मै हूँ डान..मैं हूँ डान..डान। और डान भी ऐसा कि जिसे 11 मुल्क की पुलिस ढ़ूँढ़ रही है।

फिर जिसका था उन्हें इंतेज़ार वह घड़ी आ ही गई, मायानगरी के रिक्त स्थान को भरने भाई आ गए। और ये इत्तेफाक नहीं तो क्या सीनियर खान साहब ने अपने बुरे ख्वाब मे भी ना सोचा होगा कि जिस एंग्री यंग मैन किरदार को उन्होंने जन्म दिया था वह एक दिन उनकी ही ज़िंदगी में तूफान का सबब होगा। फिल्म का मक़सद अगर समाज को मैसेज देना है तो मार धाड़ वाली फिल्म से क्या मैसेज हमने दिया ये गहराई से सोचने की बात है। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो हिंदी सिनेमा उस दर्पण का प्रतिबिंब। और उस प्रतिबिंब के साथ हमने छेड़छाड़ किया जिसका नतीजा हम पिछले कुछ दशकों से देख रहे हैं। हद तो तब हो गई एक ऐसे केस में जो सीधा-सीधा पुलिस केस है उसपर खुले आम दो ग्रुप लड़ रहे हैं कि एक कहता है सलमान माफी माँगो दूसरा कहता क्यों जब क़ानून का सहारा लिया तो अदालत तय करेगी क्या करना है और मीडिया ट्रायल है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा।

ख़ैर फलदार दरख़्त को झुका होना चाहिए और माफी मांग के मामला खत्म किया जा सकता है तो इसमें बुरा क्या है। बहरहाल क़ानूनी केस मे माफी की भी गुँजाइश है, सज़ा-ए मौत याफ्ता क़ैदी भी राष्ट्रपति से माफी की गुहार कर सकता है। पर जो भी हो जितना ज़्यादा दोनों गुट के फैन आन स्क्रीन लड़ रहे है मीडिया की टी.आर.पी. उतनी बढ़ रही है। और फैंस का यह हाल है कि पुष्पा झुकेगा नहीं, भाई के लिए कुछ भी करेगा। और सड़क पर भाई और भाई जान दोनों के फैन गुत्था-गुत्थी कर रहे हैं।

पर पूरी चर्चा मे जो सबसे दुखद बात है सलमान की सेफ्टी, ऐसा लग रहा है कि तथाकथित धमकी, वह चाहे एक शरारत ही ना रही हो पर हमारा मीडिया चाहता है कि ऐसा कोई धमाका हो कि उनकी ब्रकिंग ख़बर कभी ब्रेक ना ले। धमकी देनेवाला अगर पीछे हट रहा हो तो ये उसे ऐसा करने ना देंगे। मीडिया को अपनी ख़बर को साबित करना भी किसी ज़िम्मेदारी से कम नहीं। बहरहाल एक बेहतरीन कलाकार जो 35 साल से लोगों के होंठो पे मुस्कराहट ला रहा है, कितने डिप्रेस लोगों की ज़िंदगी में टेंशन बस्टर का सबब है।

जिसे देखकर बच्चे बग़ैर बेल्ट के ही हुण हुण दबंग दबंग करना शुरू कर दें चाहे चड्ढ़ी उतर जाए पर दबंगई से समझौता नहीं। बच्चों का एक बेड से दूसरे बेड पे कूद कूद कर सुल्तानगिरी इतना आसान नही भूल जाना कि ख़ून मे तेरे मिट्टी मिट्टी मे खून रे सुल्तान, रे सुल्तान… सबकुछ जैसे कल ही हुआ हो। सचमुच चुलबुल पाण्डे और सुल्तान ने तो प्रेम किरदार को भी पीछे छोड़ दिया, इन दोनों फिल्मों ने बच्चा पार्टी को भी सलमान का मुरीद बना दिया। फिर बजरंगी भाईजान की मुन्नी ने किस किस की आँखों को नम ना किया हो। हाल की दिहाई मे सलमान ने काफी संजीदा किदार अदा किया।

सलमान पर बात करने की सबसे बड़ी वजह यह है कि देश का वह एक ऐसा नागरिक है जो लगातार समाज की सेवा कर रहा है। यह बात भी हाल मे पता लगी कि 2010 मे ही बोन मैरो का दान करके एक बच्ची की जान बचाने वाला अपने भाई अरबाज़ के साथ वह पहले भारतीय हैं। रजत शर्मा के शो से पता लगा कि अपनी इंकम का एक बड़ा हिस्सा वह दान मे देते हैं। समझ से परे है कि इंकम टैक्स और ज़कात देने के बाद 21वीं सदी मे ये नये ज़िम्मी क्यों। सबसे बड़ी बात सलमान पे किसी तरह का ग़ैरक़ानूनी ख़तरा का मतलब है कला पर आक्रमण, एक कलाकार का अपमान।

सलमान ने अपना नाम अपनी शक्ल सूरत से नहीं अपनी बेहतरीन अदाकारी से लोगों का दिल जीता है जिन्हें उनके नाम से मुश्किल है वह उनकी पिक्चर ना देखें पर कम से कम हसद की इस इंतेहा पर भी ना पहुँचें। क्रिएटिव फील्ड मे सिर्फ काम का स्टाइल काम आता है, ना नक़ल, ना अक़ल वर्ना हिंदुस्तान मे ना नक़लचियों की कमी है ना अक़लमंदों की पर सलमान जैसा कमअक़्ल बल्कि इमोशनल फूल तीन दिहाई से ऐसे राज नहीं कर रहा है, थिएटर उसके नाम पर भरता है तो यह उसकी अदाकारी है, मुल्क के बाहर अगर हिंदी फिल्म चल रही इन अदाकारों से कितने लोग फिल्मों से हमारी भाषा को सीख रहे हैं।

इसलिए एक निर्देशक और लेखक दोनों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है ज़ुबान को आसान और कहानी को हल्की फुल्की रखें, जो सलमान की फिल्मों मे मिलती है। शायद सेल्फी ले ले के थके सलमान भी अब बोल रहे हों, कुछ तो बता ऐ ज़िंदगी, अपना तो बना ज़िंदगी। पर हम है कि खान साहब को ना तो पूरी तरह अपना पा रहे हैं ना नज़रअंदाज़ कर पा रहे हैं। नज़रअंदाज़ भी कैसे हो, उसके अंदर का कलाकार होने नही देता, क्योंकि वह रोती सूरत मे सामने आ जाता है, तेरे नाम नाम मैंने किया, जीवन अपना सारा सनम। तो बस खेल लें उस जीवन से जान नहीं गाजर मूली है। हम तो यही कहेंगे क्यों किसी को वफा के बदले वफा नहीं मिलती, दुआ के बदले दुआ नहीं मिलती।

फिरदौस अज़मत सिद्दीक़ी ,असोसिएट प्रोफेसर, महिला अध्ययन केन्द्र, जामिया मिलिया इस्लामिया

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