मुस्लिम राजनीति: सशक्तिकरण की लहर या सियासी सौदेबाज़ी का नया मुखौटा?

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शाहिद सईद (वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता)

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में जब भी किसी वर्ग, समुदाय या समूह की बात होती है, तो अक्सर दो प्रमुख धारणाएं सामने आती हैं — एक, उस समुदाय के अधिकार; और दूसरी, उसकी राजनीतिक भागीदारी। पर जब मुस्लिम समुदाय की बात होती है, तो यह विमर्श केवल अधिकारों और भागीदारी के दायरे में नहीं रहता, बल्कि डर, संदेह, और मत-ध्रुवीकरण की राजनीति में उलझकर रह जाता है। बीते दशकों में मुस्लिम समाज को सत्ता में भागीदारी के नाम पर कई झूठे वादे, खोखले नारे और चुनावी भाषण मिले। आज भी मुस्लिम मतदाता का बहुमत धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लामबंद किया जाता है, पर जब सत्ता के फैसलों में भागीदारी की बात आती है, तो वही समाज कोने में डाल दिया जाता है — गुमनाम, निरुपाय और राजनीतिक रूप से अशक्त।

मुस्लिम राजनीति आज जिस मोड़ पर खड़ी है, वह साधारण नहीं, ऐतिहासिक है। यह न तो कोई नया प्रयोग है, न कोई अचानक उभरी हुंकार — बल्कि यह एक लंबे राजनीतिक उपेक्षा और सामाजिक असंतोष का परिणाम है। मुस्लिम समाज आज नेतृत्व की तलाश में है, पर जो नेतृत्व सामने आ रहा है, वह खुद भ्रमित, बंटा हुआ और एजेंडाधारी नज़र आता है। क्या यह नेतृत्व समाज को आगे बढ़ाएगा? या केवल वोट के सौदों में खुद को बेच डालेगा? यह सवाल जितना ज़रूरी है, उतना ही बेचैन करने वाला भी।

आजादी के बाद मुस्लिम समाज ने जिस ‘धर्मनिरपेक्ष राजनीति’ में भरोसा जताया, उसने उसे राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल तो किया, पर सशक्त नहीं किया। कांग्रेस हो या समाजवादी दल, वामपंथी मोर्चा हो या क्षेत्रीय ताकतें — सबने मुसलमानों को सिर्फ एक ‘वोट बैंक’ की तरह देखा। चुनाव आते ही ‘आपकी सुरक्षा’, ‘आपकी पहचान’, ‘आपकी धार्मिक स्वतंत्रता’ जैसे नारों के सहारे मुस्लिम वोट बटोरे गए, लेकिन जब सत्ता का बंटवारा हुआ, तो सबसे पीछे मुसलमान ही दिखा। उच्च पदों पर मुस्लिम चेहरों की संख्या घटती गई, नीति निर्माण के स्तर पर मुस्लिम समाज हाशिये पर धकेल दिया गया, और मीडिया में उसकी छवि कट्टरता और पिछड़ेपन से जोड़ दी गई।

आज स्थिति यह है कि मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा नेतृत्वविहीन है। धार्मिक नेतृत्व समाज को केवल रुढ़ियों में उलझा रहा है और राजनीतिक नेतृत्व अवसरवादी समझौते कर रहा है। कुछ तथाकथित दलों के उभार को भले कुछ लोग मुस्लिम आत्मसम्मान की पुनःस्थापना के रूप में देख रहे हों, पर यह नेतृत्व भी सीमित भूगोल और सीमित वर्गों तक ही सीमित है। दूसरी तरफ, कई स्वयंभू मुस्लिम नेता, जो टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, उनका उद्देश्य समाज के भीतर जागरूकता फैलाना नहीं, बल्कि खुद के लिए स्पेस बनाना और सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ सौदेबाज़ी करना प्रतीत होता है।

मुस्लिम समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि नेतृत्व अब “सेवा” नहीं, “सौदा” बन गया है। मुसलमानों के नाम पर कुछ लोग पार्टियों से टिकट मांगते हैं, कुछ मंत्रालय, कुछ बोर्ड और आयोगों में नामांकन। बदले में वे एक जिले, एक तहसील, या एक क्षेत्र का ‘वोट बैंक मैनेजर’ बनकर रह जाते हैं। यह राजनीति मुस्लिम समाज को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में नहीं जाती, बल्कि उसे और अधिक पराश्रित और भ्रमित करती है। यह “सशक्तिकरण की लहर” नहीं, बल्कि “सियासी दलालों की भीड़” है, जो हर पांच साल में चेहरे बदल लेती है, लेकिन नीयत नहीं।

यदि वास्तव में मुस्लिम समाज को सशक्त बनाना है, तो सबसे पहले इस सोच को बदलना होगा कि ‘हमें कोई बचाएगा’। मुस्लिम नेतृत्व को अब ‘उपेक्षा के खिलाफ आंदोलन’ नहीं, बल्कि ‘सृजनात्मक निर्माण’ की ओर बढ़ना होगा। इसे धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर, नागरिक अधिकारों के स्तर पर राजनीति करनी होगी। नेतृत्व को मस्जिदों, मदरसों और मंचों से निकालकर विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप्स, स्वास्थ्य और नीति-निर्माण संस्थाओं की ओर ले जाना होगा। मुसलमानों को राजनीति में सिर्फ भावनात्मक नहीं, बौद्धिक भागीदारी देनी होगी — ताकि नेतृत्व सिर्फ़ दिखाई न दे, असर भी पैदा करे।

यह भी ज़रूरी है कि मुस्लिम राजनीति अब आत्ममंथन करे। उसे यह स्वीकार करना होगा कि बार-बार “डर की राजनीति” करने से अब कुछ नहीं होगा। “फलां पार्टी आ गई तो मुसलमान खतरे में हैं” — यह नैरेटिव अब पुराना हो चुका है। नए दौर का नेतृत्व पूछेगा — क्या हमारी बेटियाँ कॉलेज तक जा पा रही हैं? क्या हमारे नौजवान स्वरोजगार में आगे बढ़ रहे हैं? क्या हमारी वक्फ संपत्ति का उपयोग जनहित में हो रहा है? क्या हमारी मस्जिदें और मदरसे समाज के लिए विकास केंद्र बन रहे हैं या सिर्फ मज़हबी उपदेशों तक सीमित रह गए हैं? यदि ये प्रश्न मुस्लिम राजनीति के केंद्र में नहीं हैं, तो बाकी सारी बातें सिर्फ शोर हैं।

वक्फ, हज, मदरसे, उर्दू, अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय — ये सभी विषय अगर मुसलमानों के अधिकारों से जुड़े हैं, तो इनके संचालन में पारदर्शिता और जवाबदेही भी मुस्लिम नेतृत्व की ही ज़िम्मेदारी है। आज ज़रूरत है कि एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया जाए — जहाँ मुस्लिम नेतृत्व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ खड़ा हो, लेकिन मुस्लिम समाज के भीतर आत्मगौरव, आत्मनिर्भरता और आधुनिकता को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखे।

यदि मुस्लिम राजनीति अब भी ठेकेदारी और सांठगांठ की राजनीति में उलझी रही, तो वह आने वाले वर्षों में पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएगी। युवाओं का झुकाव अब धार्मिक नारों की ओर नहीं, नीति और परिणामों की ओर है। उन्हें रोजगार चाहिए, शिक्षा चाहिए, पहचान नहीं बल्कि समानता चाहिए। उन्हें भारत में एक गर्वित नागरिक की तरह जीना है, किसी ‘अल्पसंख्यक’ की तरह नहीं। जो नेतृत्व इस बदलाव को समझेगा, वही टिकेगा; बाकी इतिहास बन जाएंगे — असफल प्रयोग की तरह।

यह स्वीकारना होगा कि मुस्लिम समाज की सशक्तिकरण यात्रा केवल “अपने लिए” नहीं, बल्कि “भारत के लिए” है। एक जागरूक, शिक्षित, आर्थिक रूप से मजबूत मुस्लिम समाज भारत की ताकत बनेगा — यह न तो किसी सरकार की कृपा से होगा, न किसी संगठन की गारंटी से — यह होगा सही दिशा, ईमानदार नेतृत्व और जन-चेतना से। अब समय आ गया है कि मुस्लिम राजनीति मुखौटे उतारे और असली चेहरा सामने लाए — विचार का, विकास का, और विश्वास का।

(ये लेखक के निजी विचार है।)

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